Tuesday, December 20, 2016

Dr. Rajendra Prasad Biography, Stories, Essay in Hindi - डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

Dr. Rajendra Prasad Biography Stories

Dr. Rajendra Prasad Biography Stories in Hindi
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अपनी सादगी. पवित्रता. सत्यनिष्ठा, योग्यता और विद्वता से भारतीय ऋषि-परम्परा को पुनर्जीवित कर देने वाले, देशरत्न के उच्चतम पद से विभूषित राजेन्द्र बाबू का पूरा नाम डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सिंह है । अपनी सादगी और सरलता के कारण किसान जैसा व्यक्तित्व पाकर भी पहले राष्ट्रपति बनने का गौरव पाने वाले इस महान् व्यक्ति का जन्म 3 दिसम्बर, सन् 1884 ई० के दिन बिहार राज्य के सरना जिले के एक मान्य एवं सन्धान्त कायस्थ परिवार में हुआ था । पूर्वज तत्कालीन हथुआ राज्य के दीवान रह चुके थे । उर्दू भाषा में आरम्भिक शिक्षा पाने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता आ गए । Dr. Rajendra Prasad Biography Stories

Career Information

प्रथम भारत के राष्ट्रपति
कार्यकाल
26
जनवरी 1950 – 14 मई 1962
प्रधान  मंत्री
जवाहर लाल नेहरू
उपराष्ट्रपति
सर्वपल्ली राधाकृष्णन
पूर्व अधिकारी
स्थिति की स्थापना
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के गवर्नर जनरल के रूप में
उत्तराधिकारी
सर्वपल्ली राधाकृष्णन
Personal Information
जन्म
3 दिसम्बर 1884
जिरादेई, बंगाल प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत (अब बिहार में)
मृत्यु
28 फ़रवरी 1963 (उम्र 78)
पटना, बिहार, भारत
राष्ट्रीयता
भारतीय
राजनैतिक पार्टी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
जीवन संगी
राजवंशी देवी (मृत्यु १९६२)
विद्या अर्जन
कलकत्ता विश्वविद्यालय
धर्म
हिन्दू

आरम्भ से अन्त तक प्रथम श्रेणी में हर परीक्षा पास करने के बाद वकालत करने लगे । कुछ ही दिनो मे इनकी गणना उच्च श्रेणी के श्रेष्ठतम वकीलों में होने लगी । लेकिन रोलट एक्ट से आहत होकर इनका स्वाभिमानी मन देश की स्वतत्रता के लिए तड़प उठा और गान्धी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलनी में भाग ले कर देशसेवा में जुट गए । आरम्भ में राजेन्द्र बाबू राष्ट्रीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले से; पर बाद में महात्मा गान्धी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से सर्वाधिक प्रभावित रहे । ये दोनो प्रभाव इनके जीवन में स्पष्ट दिखाई दिया करते थे ।

इन दोनों ने ही इन्हें महान् बनाया । सन् 195 ई० मे पूना में स्थापित सर्वेण्टस आफ इण्डियासोसाइटी की तरफ आकर्षित होते हुए भी राजेन्द्र बाबू अपनी अन्तःप्रेरणा से गान्धी जी के चलाए कार्यक्रमों के प्रति सर्वात्मभाव से समर्पित हो गए और फिर आजीवन उन्हीं के बने भी रहे । राजेन्द्र बाबू विद्वान् और विनम्र तो थे ही, अपूर्व सूझ-बूझ वाले एव सगठन- शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति भी थे । इस कारण इन्हे जीवन-काल में और स्वतत्रता सघर्ष काल में शी अधिकतर इसी प्रकार के कार्य सौपे जाते रहे । अपनी लगन एवं दृढ कार्यशक्ति से शीघ्र ही इन्होंने गान्धी जी के प्रिय पात्रों के साथ-साथ शीर्षस्थ राजनेताओं मे भी एक परम विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था ।

आरम्भ में इनका कार्यक्षेत्र अधिकतर बिहार राज्य ही रहा । असहयोग-आन्दोलन मे सफलतापूर्वक भाग ले और शीर्षस्थ पद पाकर ये बिहार के किसानो को उनके उचित अधिकार दिलाने के लिए संधर्ष करने लगे । बिहार राज्य मे नव जागृति लाकर स्वतंत्रता-संघर्ष के लिए खडा कर देना भी इन्हीं के कुशल एवं निःस्वार्थ नेतृत्व का कार्य था । सन् 1९३४ मे बिहार राज्य में आने वाले भूकम्प के कारण उत्पन्न विनाश-लीला के अवसर पर राजेन्द्र बाबू ने जिस लगन और कुशलता से पीडित जनता को राहत पहुँचाने का कार्य किया, वह एक अमर घटना तो बन ही गया. उसने सारे बिहार राज्य को इनका अनुयायी भी बना दिया ।

अपने व्यक्तित्व मे पूर्ण, कई बातों में स्वतंत्र विचार रखते हुए भी राजेन्द्र बाबू गान्धी जी का विरोध कभी भूलकर भी नहीं किया करते थे । हर आदेश का पालन और योजना का समर्थन नतमस्तक होकर किया करते थे । इसका प्रमाण उस समय भी मिला, जब हिन्दी भाषा का कट्टर अनुयायी एवं समर्थक होते हुए भी इन्होंने गान्धी जी के चलाए हिन्दोस्तानी भाषा के आन्दोलन को चुपचाप स्वीकार कर लिया । राजेन्द्र बाबू अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के साथ भी आजीवन जुडे रहे । उसकी हर गतिविधि का समर्थन-सहयोग तो करते ही रहे, एक बार अध्यक्ष भी रहे ।

दूसरी बार हिन्दी-हिन्दोस्तानी के प्रश्न पर अध्यक्ष पद न पा सकने पर भी निराश या हतोत्साहित नहीं हुए और न ही हिन्दी साहित्य-सम्मेलन की गतिविधियों से नाता ही तोड़ा, क्योंकि ये गान्धी जी द्वारा चलाए गए प्रत्येक राजनीतिक गतिविधि एव आन्दोलन का खुला अंग रहे, इस कारण इन्हें कई बार जेल-यात्रा भी करनी पडी । एक निष्ठावान कार्यकर्त्ता एवं उच्चकोटि का राजनेता होने के कारण राजेन्द्र बाबू को दो बार अखिल भारतीय कांग्रेस दल के सर्वोच्च पद-अध्यक्ष- पद पर भी निर्वाचित किया गया ।

उस समय की अनेक जटिल समस्याएँ सुलझाने के कारण काग्रेस-अध्यक्ष के रूप में इनको आज भी श्रद्धा एवं आदर के साथ स्मरण किया जाता है । कांग्रेस- इतिहास के जानकारों का कहना और मानना है कि राजेन्द्र बाबू के अध्यक्ष काल में जैसा सौहार्दपूर्ण वातावरण काग्रेस मे रहा, उस से पहले या बाद में आज तक कभी भी नहीं रहा । इन्होने छोटे-बडे प्रत्येक कार्यकर्त्ता की बात ध्यान से सुनी, इस कारण किसी की टाँग खींचने या उठा-पटक का कभी अवसर ही नहीं आया । लगातार संघर्षो के परिणामस्वरूप सन् 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ, तब देश का सविधान तैयार करने वाले दल का अध्यक्ष भी डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को ही बनाया गया ।

नव स्वतत्रता-प्राप्त भारत का अपना संविधान बन जाने के बाद 26 जनवरी, सन् 195० के दिन जब उसे लागू और घोषित किया गया, तो उसकी माँग के अनुसार स्वतंत्र गणतंत्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित होने का गौरव भी डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को ही प्रदान किया गया । वास्तव मे ये इस पद के उचित एवं सर्वाधिक सक्षम अधिकारी भी निश्चय ही थे । सन् 1957 में दुबारा भी इन्हीं को राष्ट्रपति बनाया गया । राष्ट्रपति भवन के वैभवपूर्ण वातावरण में रहते हुए भी इन्होंने अपनी सादगी और पवित्रता को कभी भग नहीं होने दिया ।

हिन्दीको राष्ट्रभाषा घोषित करने जैसे कुछ प्रश्नों पर इनका प्रधानमत्री से मत-भेद भी बना रहा, पर इन्होंने अपने पद की गरिमा को कभी भंग नहीं होने दिया । दूसरी बार का राष्ट्रपति-पद का समय समाप्त होने के बाद ये बिहार के सदाकत आश्रम में जाकर निवास करने लगे । सन् 1962 मे उत्तर-पूर्वी सीमांचल पर चीनी आक्रमण ने इनकी आत्मा को तिलमिला कर तोड दिया । चीनी आक्रमण का सामना करने का उद्‌घोष करने के बाद शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थता मे रहते हुए इनका स्वर्गवास हो गया । इन्हें मरणोपरान्त भारत रत्नके पद से विभूषित किया गया । भारतीय आत्मा इनके सामने हमेशा नतमस्तक रहेगी ।


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