Subhas Chandra Bose Biography
Subhas Chandra Bose Biography/Stories/Essay in Hindi Subhas, Chandra Bose Biography/Stories/Essay in Hindi
Subhas Chandra Bose Biography/Stories/Essay in Hindi Subhas, Chandra Bose Biography/Stories/Essay in Hindi
जन्म
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23 जनवरी 1897
कटक, बंगाल प्रेसीडेंसी का ओड़िसा डिवीजन, ब्रिटिश raj |
मृत्यु
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18 अगस्त 1945
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राष्ट्रीयता
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भारतीय
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शिक्षा
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बी०ए० (आनर्स)
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विद्यालय
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कलकत्ता विश्वविद्यालय
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प्रसिद्धि कारण
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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी
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उपाधि
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अध्यक्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1938)
सुप्रीम कमाण्डर आज़ाद हिन्द फ़ौज |
राजनीतिक पार्टी
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1921–1940,
फॉरवर्ड ब्लॉक 1939–1940 |
धर्म
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हिन्दू
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जीवनसाथी
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एमिली शेंकल
(1937 में विवाह किन्तु जनता को 1993 में पता चला) |
संतान
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अनिता बोस फाफ
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रिश्तेदार
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शरतचन्द्र बोस भाई
शिशिर कुमार बोस भतीजा |
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा”
खून के बदले आजादी देने वाले भारतमाता के इस महान सपूत का जन्म उडीसा राज्य के कटक नामक नगर में 28 जनवरी. सन 1897 ई० को हुआ था । इनके
पिता रायबहादुर जानकी नाथ बोस वहाँ की नगरपालिका एवं जिला बोर्ड के प्रधान तो थे ही, नगर के एक प्रमुख वकील भी थे । बालक
सुभाप की आरम्भिक शिक्षा एक पाश्चात्य स्कूल में हुई । कलकत्ता
विश्वविद्यालय से मैट्रिक-परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रेसिडेन्सी महाविद्यालय में प्रविष्ट हुए । वहाँ
के एक भारत-निन्दक प्रोफेसर को चाँटा रसीद करने के कारण निकाल दिए गए । बाद
में स्कॉटिश चर्च कॉलेज में पढ़कर कलकत्ता यूनीवर्सिटी से बी०ए० ऑनर्स की डिग्री पाई ।
सन 1919 में सिविल परीक्षा पास करने इंग्लैण्ड गए और पास कर वापिस भारत लौट आए । लेकिन
जन्मजात विद्रोही और स्वतंत्रता-प्रेमी होने के कारण ब्रिटिश सरकार की नौकरी करने से पिता के लाख चाहने कहने पर भी साफ-स्पष्ट इक्तार कर दिया । नौकरी
करने से इकार कर युवक सुभाष देशबखु चितरजन दास के प्रभाव में आकर उनके सेवादल में भर्ती होकर देश और जन-सेवा के कार्य करने लगे । चितरंजन
बाबू ‘अग्रगामी’ नामक एक पत्र निकाला करते थे, सुभाष बाबू उसका सम्पादन-प्रकाशन भी देखने लगे । सन्
1921 में जब ये स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए स्वयंसेवक संगठित करने लगे, अंग्रेज सरकार ने पकडकर जेल में बन्द कर दिया । प्रिन्स
आफ वेल्स के भारत मे आने पर बगाल में उनका बहिष्कार करने वालों के अगुआ सुभाष बाबू ही थे ।
फिर देशबसु द्वारा गठित स्वराज्यदल का कार्य करने लगे । इनके
इन कार्यों से घबराई ब्रिटिश सरकार ने काले पानी की सजा सुना माण्डले जेल भेज दिया, पर जब इनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहा, तो इन्हें जेल से छोड दिया गया । सन्
1927 में जब ये जेल से रिहा होकर वापिस लौटे तो मद्रास कांग्रेस-अधिवेशन के अवसर पर इन्हें महामंत्री बना दिया गया । उन
दिनों कांग्रेस में नरम और गरम दो प्रकार के नेता हुआ करते थे । सुभाष
गरम दली माने जाते थे । सो
इन्होंने कांग्रेस की औपनिवेशिक स्वराज की माँग स्वीकार कर पूर्ण स्वराज की माँग का समर्थन किया और कांग्रेस मे यही प्रस्ताव पारित करा दिया । गान्धी
जी से सुभाष के विचार मेल न खाते
थे, फिर भी सुभाष उनका सम्मान और कार्य करते रहे ।
फिर सन् 1930 में जेल आने पर स्वास्थ्य बिगड जाने पर ब्रिटिश सरकार को राजी कर कुछ दिनो क्रे लिए यूरोप चले गए । वहाँ
रह कर भी भारतीय स्वतत्रता के लिए वातावरण तैयार करते रहे । फिर
देश आने पर इन्हें हरिपुर कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया । अगले
वर्ष गान्धी जी की इचछा न रहते
हुए भी पट्टाभिसीतारमैया के विरुद्ध खडे हो सुभाष
बाबू जीत गए;
पर सुभाष
की इस जीत
को गान्धी
जी ने अपनी
हार माना और
जब त्रिपुरा
काग्रेस अधिवेशन
के अवसर पर
गान्धी जी ने
काग्रेस त्याग
देने की धमकी
दे डाली,
तो सुभाष
बाबू ने स्वयं
ही राष्ट्रपति
पद से त्यागपत्र दे दिया ।
त्यागपत्र देने के
बाद सुभाष
बाबू ने फारवर्ड ब्लॉक’ या अग्रगामी दल’ नाम से
एक अलग दल
का गठन किया
और राष्ट्र
की स्वतंत्रता
के लिए कार्य
करते रहे ।
इस पर भी
जब ब्रिटिश
सरकार ने सुरक्षा-कानून के अन्तर्गत पुन: गिरफ्तार
कर लिया,
तो सुभाष
बाबू ने आमरण
अनशन की घोषणा
कर सरकार
को बडी ही
असमंजस की स्थिति मे डाल दिया
। बहुत सोच-
विचार के बाद
सरकार ने इन्हे
जेल में बन्द
न कर घर
में ही नजरबन्द कर चारों
तरफ कडा पहरा
बैठा दिया ।
इस पर इन्होने कुछ दिन बाद
तपस्या करने और
समाधि लगाने
की घोषणा
कर दी ।
इसके साथ ही
ये चुपचाप
वही से निकल
भागने की तैयारी करते रहे ।
समाधि लगाने
के नाम पर
अकेले रहकर अपनी
पूंछ-दादी आदि
बढा ली ।
मौलवी का वेश
बनाया और ठीक
आधी रात के
समय समूची
ब्रिटिश सत्ता
और उसकी कडी
व्यवस्था को धत्ता
बता कर घर
से चुपचाप
निकल गए ।
वहाँ कलकत्ता
से निकल लाहौर
की राह पेशावर पहुँचे । वहाँ
उत्तम चन्द नामक
एक देशभक्त
व्यक्ति की सहायता से एक गूंगा
व्यक्ति और उसका
नौकर बनकर काबुल
पहुँचे । वहाँ
से सरलता
से इन्हे
जर्मन पहुँचा
दिया गया ।
जर्मन से जापान
आए । वहाँ
पर रासबिहारी
तथा अन्य कई
भा गतीय व्यक्तियों तथा जापान
सरकार के सहयोग
से बन्दी
बनाए गए भारतीय सैनिकों तथा अन्य
युवकों की सहायता से ‘आजाद हिन्द
फौज’ का गठन
किया । उसी
अवसर पर एक
दिन सैनिकों
को उत्साहित
करने वाले भाषण
में कहा ‘तुम
मुझे खून दो.
मैं तुम्हें
आजादी दूँगा
।’ उत्साह
से भर कर
इनकी सेना ने
मणिपुर और इस्फाल के मोची तक
ब्रिटिश साम्राज्य
के छक्के
छुडाए ।
ब्रह्मा एव मलाया
तक अंग्रेजों
को पराजित
कर मार भगाया
। इन्होंने
गान्धी और जवाहर
के नाम पर
पुरुष-सैनिक-
ब्रिगेड तो गठित
किए ही, ‘झांसी
की रानी ब्रिगेड भी महिला
सेना गठित कर
बनाया । इनका
भाषण सुनकर
लोग अपना सर्वस्व तक न्यौछावर
कर दिया करते
थे । महिलाएँ अपने आभूषण
तक उतार कर
इन्हें अर्पित
कर दिया करती
थीं । सन्
1945 में कल- बाबू
जब एक निर्णायक आक्रमण भारत की
स्वतंत्रता के लिए
करना ही चाहते
थे कि जर्मन-जापान
युद्ध में हार
गए । फलत:
सुभाष बाबू का
स्वप्न भी अधूरा
रह गया ।
बाद में ये
एक हवाई दुर्घटना का शिकार
होकर अपना सपना
साथ लेकर ही
इस संसार
से चले गए
। आज हम
जो ‘जय हिन्द’
कह कर परस्पर अभिवादन करते हैं,
यह सुभाष
बाबू की ही
इजाद है ।
आजाद हिन्द
सेना के सिपाही तथा अन्य सभी
आदर से सुभाष
बाबू को ‘नेताजी’ कहकर सम्बोधित
किया करते थे
।
भारत की
स्वतंत्रता के इतिहास में नेताजी
सुभाषचन्द्र बोस का
नाम चिरकाल
तक अमर रहेगा
।
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