Maharana Pratap Biography
Maharana Pratap Biography, Stories, Essay
in Hindi – महाराणा
प्रताप
, Maharana Pratap Biography, Stories, Essay
in Hindi – महाराणा
प्रताप
महाराणा
प्रताप
शासन
|
१५७२ – १५९७
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राज तिलक
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१ मार्च १५७२
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पूरा नाम
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महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया
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पूर्वाधिकारी
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उदय सिंह द्वितीय
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उत्तराधिकारी
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महाराणा अमर सिंह
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जीवन संगी
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(11 पत्नियाँ)
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संतान
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अमर सिंह
भगवान दास (17 पुत्र) |
राज घराना
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सिसोदिया
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पिता
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उदय सिंह द्वितीय
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माता
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महाराणी जयवंता कँवर
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धर्म
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सनातन धर्म
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राष्ट्र पुरुष ऐसे महान् व्यक्तित्व को कहा जाता है, जिसके कृतित्व ने राष्ट्रीय मान-सम्मान की वृद्धि के लिए कोई त्याग और बलिदान से भरा हुआ महत्त्वपूर्ण कार्य किया हो । इस
दृष्टि से मेवाडाधिपति महाराणा प्रताप को निश्चय ही एक प्रमुख राष्ट्रपुरुष कहा जा सकता है।उस युग में कि जब मुगल साम्राज्य के बढते वर्चस्व के सामने भारत के छोटे-बडे सभी राज्य या तो नतमस्तक हुए जा रहे थे या फिर पिट-पिटा कर अपना सर्वस्व धूल-धूसरित किये दे रहे थे, मेवाडपति महाराणा प्रताप ने तब भी, अनेक प्रकार के दुःख-कष्ट सहते हुए त्याग एव बलिदान की कठिन राही पर चलते हुए अपना मस्तक गर्व से उन्नत रखा । अपने
आप को मिटाकर भी पराधीन होना स्वीकार न कर
आगे आने वाली पीढियो के लिए स्वतत्रता-स्वाधीनता का एक महान् आदर्श स्थापित किया ।
इसी कारण आज भी उनका म्य क्तित्व महनीय माना जाता है और आगे मृघै हमेशा माना जाता रहेगा । राष्ट्रपुरुष महाराणा
प्रताप महाराणा सग्राम सिह के पोते और महाराणा उदयसिह के ज्येष्ठ पुत्र थे । महाराणा
उदयसिह ने एक से अधिक विवाह किये थे । वे
अपना उत्तराधिकारी ज्येष्ठ रानी के ज्येष्ठ पुत्र प्रताप को नहीं, बल्कि छोटी रानी के विलासी और कायर प्रवृत्ति वाले छोटे पुत्र यागमल या यज्ञमल को बनाना चाहते थे । उन्होंने
इस बात की घोषणा भी कर दी और मेवाड के राजसिहासन पर बैठा भी दिया था, पर मेवाड के प्रमुख सरदारी को यह सब स्वीकार नहीं था । वे
त्याग-बलिदान और वीरता के साथ-साथ महान् मानवीय गुणो वाले प्रताप को मेवाड के राजसिहासन पर बैठाना चाहते थे ।
अतः एक दिन उन्होंने ठीक उस समय जबकि महाराणा बने यागमल राजदरबार मे बैठकर नृत्य-गायन देखने-सुनने मे मग्न थे, प्रमुख सरदारी ने पहुँचकर उन्हे मेवाड के राजसिहासन से उतार कर तत्काल प्रताप का महाराणा के पद पर राज्याभिषेक कर दिया । मेवाड
के कीटो से भरे ताज को स्वीकार करने के तत्काल बाद महाराणा प्रताप ने भरी सभा में घोषणा करते हुए कहा- क्योकि मेवाड के आधे से अधिक भाग पर दिल्ली के मुगल सम्राट अकबर ने अधिकार कर रखा है, अत: राज तक मे सारे मेवाड को अपने राज्य का अग नहीं बना लेता’ मुगल दासता से स्वतत्र नहीं कर लेता, तब तक मै न तो
राजभवन गे रहूँगा. न राजसी
ताज और वेश-भूषा धारण करूँगा, न मै
चान्दीसोने के बर्तनो मे खाऊँगा और न पलग
पर शयन ही करूंगा ।
मैं झोपडी मे रहकर भूमि पर सोऊँगा मिट्टी के पात्रो मे रूखा-सूखा खाऊंगा और निरन्तर स्वतत्रता प्राप्ति के लिए सघर्ष करता रहूंगा । इसके
बाद वे आजीवन वनवासी बनकर अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण
करने मे ही
लगे रहे ।
इसी कारण उन्हे
प्रणपालक, प्रजावत्सल
और स्वतत्रता
का अनन्य
पुजारी कहा और
स्वीकारा जाता है
। उधर दिल्ली-सम्राट अकबर चाहते
थे कि देश
के अन्य छोटे-बडे
राज्यो के समान
सारा मेवाड
भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ले,
पर महाराणा
को यह स्वीकार नहीं था ।
अत: प्रताप
के अरावली
पर्वतमाला के जगलो
मे चले जाने
के बाद भी
मुगल-सेनाएँ
लगातार उनका पीछा
करने लगीं ।
अकबर ने अपने
साले जोधपुर
नरेश मानसिह
को मी महाराणा प्रताप के पास
मजा कि वह
उन्हे अधीनता
स्वीकार करने के
लिए समझा-बुझाकर बाध्य कर सके
।
परन्तु महाराणा
ने उनसे मिलकर
भी उनका प्रस्ताव स्वीकार नही किया
। फलस्वरूप
हल्दी घाटी के
मैदान मे अकबर
की विशाल
सेना मानसिह
और शाहजादा
सलीम की देख-रेख
मे महाराणा
प्रताप से युद्ध
करने के लिए
आ डटी ।
घमासान-युद्ध
के बाद अपने
प्रमुख सरदारो
के परामर्श
से घायल हुए
महाराणा प्रताप
को रणक्षेत्र
से भागकर
अपने प्राण
बचाने पडे, ताकि
स्वतत्रता-सघर्ष
आगे नुाईा
जारी रखा जा
सके । इस
युड और भागम-भाग
मे प्रताप
का प्रिय
घोडा चेतक यरी
घायल होकर मर
गया । तब
अपने बिछडे
छोटे भाई शक्तिसिह के घोडे पर
सवार हो कर
महाराणा प्रताप
युद्धभूमि से दूर
सुरक्षित स्थान
पर जा सके
। स्वस्थ
होने पर वे
फिर अगले सघर्ष
की तैयारी
करने लगे, पर
आर्थिक स्थिति
इतनी खराब हो
चुकी थी कि
बच्चो को कई-कई
दिन खाना न
मिलता ।
एक रोज जब
घास-फूस से
बनी रोटी का
टुकड़ा भी एक
जगली बिलाव
उनके बच्चे
के हाथो से
छीन कर ले
गया और ‘रोटी-रोटी’
कहता वह जार-जार
रोने लगा, तब
कुछ कमजोर
पड कर महाराणा प्रताप को सुलह
के लिए पत्र
लिख बैठे.
पर अकबर के
दरबारी कवि पृथ्वीराज के कारण उनकी
यह क्षणिक
दुर्बलता दूर हो
गई । अपने
पुराने सचिव भामाशाह से अपार-धन
सम्पत्ति पाकर पे
फिर सेनाएँ
एकत्रित करने लगे
। अब उन्ही
ने छापामार
युद्ध की विधि
अपना कर मुगल-सेनाओ
के यहाँ-वहाँ
छक्के छुडाने
आरम्भ कर दिए
। इस से
शीघ ही मुगल
सम्राट अकबर की
समझ मे आ
गया कि विशाल
सागर को तो
शायद बाँधा
भी जा सकता
है, पर महाराणा प्रताप को पराजित कर पाना कतई
सम्भव नहीं ।
इस कारण अन्त
मे उसने सेनाओ
को प्रताप
के विरुद्ध
युद्ध बन्द कर
देने का आदेश
किया । अब
तक प्रताप
ने मेवाड
का प्राय:
सारा पराधीन
भाग भी स्वतत्र करा लिया था
। इस प्रकार लगातार सघर्ष
करते रहने,
भूखे-प्यासे
उगिलो मे मारे-मारे
फिरते रहने के
कारण महाराणा
प्रताप का शरीर
जर्जर और रुग्ण
हो चुका था
। वे रोग
शरया पर पड
गए । सभी
प्रमुख सरदारो
के सामने
अपने बेटे अमरसिह को बुलाकर,
दु खद स्वर
मे कहा-”मेरा
छोडा अधूरा
काम हर मूल्य
पर पूर्ण
होना चाहिए-
और आँखें
मूँद लीं ।
इस प्रकार
उनका पूरा जीवन
स्वतत्रता की एक
सुलगती मशाल बन
कर राष्ट्र
के लिए समर्पित रहा ।
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